जनपद एटा,
एटा जनपद के मिरहची क्षेत्र में स्थित एक आरा मशीन इस समय पूरे जिले में चर्चा का केंद्र बनी हुई है। यह कोई साधारण आरा मशीन नहीं, बल्कि अवैध लकड़ी, वन माफियाओं और संदिग्ध विभागीय संरक्षण का जीता-जागता सबूत बनती जा रही है। कागज़ों में यह मशीन राकेश के नाम से पंजीकृत है, लेकिन हकीकत में इसका संचालन सुनील और अनिल कर रहे हैं। मशीन परिसर में जिस पैमाने पर लकड़ी का अंबार लगा है, उसने वन विभाग की कार्यप्रणाली पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
स्थिति यह है कि मशीन पर इतनी अवैध लकड़ी पड़ी हुई है कि लकड़ी का चिरान तक संभव नहीं हो पा रहा। सवाल यह है कि जब चिरान ही नहीं हो पा रहा, तो यह लकड़ी आखिर किस मकसद से इकट्ठा की गई है? क्या यह किसी बड़े अवैध नेटवर्क का हिस्सा है? या फिर यह लकड़ी “सही समय” का इंतज़ार कर रही है?
शिकायत के बाद भी कार्रवाई नहीं — रेंजर के बयान ने बढ़ाया संदेह
जब इस पूरे मामले की जानकारी एटा के रेंजर को दी गई, तो शुरुआत में उन्होंने कहा कि वह स्वयं जाकर जांच करेंगे। लेकिन तीन घंटे बीत जाने के बाद जब दोबारा संपर्क किया गया, तो रेंजर का जवाब चौंकाने वाला था। उन्होंने कहा कि वह शीतलपुर ब्लॉक में हैं और उन्होंने स्टाफ को मौके पर भेज दिया है।
रेंजर का दावा था कि स्टाफ ने बताया है कि कुछ लकड़ी परमिशन की है और कुछ लकड़ी का जुर्माना कटा हुआ है। लेकिन यही वह बिंदु है जहां से पूरा मामला और भी संदिग्ध हो जाता है।
स्थानीय लोगों और शिकायतकर्ताओं का कहना है कि:
न तो किसी भी लकड़ी की कोई वैध परमिशन मौजूद है
न ही हाल के दिनों में किसी प्रकार का कोई जुर्माना किया गया है
न कोई चालान दिखाया गया
न कोई रसीद
न ही कोई जब्ती कार्रवाई
तो फिर रेंजर ने यह निष्कर्ष किस आधार पर निकाला?
क्या बिना देखे दी गई क्लीन चिट?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या बिना मौके पर गए ही आरा मशीन को क्लीन चिट दे दी गई?
अगर स्टाफ मौके पर गया भी था, तो
उसने लकड़ी की गिनती क्यों नहीं की?
किस लकड़ी पर परमिशन थी, यह क्यों दर्ज नहीं किया गया?
जुर्माना कब, किस तारीख को और कितनी लकड़ी पर काटा गया - इसका रिकॉर्ड कहां है?
वन विभाग के नियम बेहद स्पष्ट हैं। बिना परमिट लकड़ी का भंडारण अपराध है। ऐसे में सिर्फ मौखिक बयान देकर मामले को दबाना सीधे-सीधे वन अपराध को संरक्षण देने जैसा माना जा सकता है।
कटान माफियाओं का दबदबा या लेन-देन का खेल?
मिरहची क्षेत्र पहले से ही अवैध कटान को लेकर बदनाम रहा है। गांवों के आसपास से हरे पेड़ों का कटान, रात के अंधेरे में लकड़ी की ढुलाई और फिर आरा मशीनों तक सीधी सप्लाई - यह सब किसी संगठित नेटवर्क की ओर इशारा करता है।
अब सवाल उठ रहा है
क्या इस आरा मशीन को वन माफियाओं का संरक्षण प्राप्त है?
क्या विभागीय अधिकारियों पर दबाव बनाया जा रहा है?
या फिर कहीं यह सब लेन-देन का खेल तो नहीं?
अगर सब कुछ नियमों के तहत है, तो वन विभाग को खुलकर जांच करनी चाहिए। लेकिन चुप्पी और टालमटोल खुद ही कई सवाल खड़े कर रही है।
आरा मशीन की जांच क्यों जरूरी है - हर कोना शक के घेरे में
इस मशीन की जांच सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि वन अपराध की परतें खोलने का जरिया बन सकती है। अगर सही ढंग से जांच हो, तो कई बड़े नाम सामने आ सकते हैं।
इस आरा मशीन में क्या-क्या चेक होना चाहिए (पूरी चेकलिस्ट)
1- मशीन का पंजीकरण
मशीन किसके नाम पंजीकृत है
पंजीकरण वैध है या नहीं
संचालन कौन कर रहा है और क्या उसे अनुमति है
2- मशीन की क्षमता
मशीन की प्रतिदिन की चिरान क्षमता कितनी है
उसके मुकाबले लकड़ी का स्टॉक कितना है
अतिरिक्त लकड़ी क्यों जमा की गई
3- लकड़ी का स्रोत
हर लकड़ी का टुकड़ा कहां से आया
किस वन क्षेत्र से
किस तारीख को लाया गया
4- परमिशन दस्तावेज
लकड़ी से जुड़े सभी परमिट
ऑनलाइन पोर्टल एंट्री
परमिट की अवधि और मात्रा
5- जुर्माने का रिकॉर्ड
जुर्माना कब लगाया गया
किस अधिकारी ने लगाया
कितनी लकड़ी पर
रसीद और चालान की प्रतियां
6- स्टॉक रजिस्टर
आरा मशीन का स्टॉक रजिस्टर
इनवर्ड-आउटवर्ड एंट्री
पिछले 6 महीनों का पूरा रिकॉर्ड
7- CCTV और निगरानी
मशीन परिसर में CCTV लगे हैं या नहीं
फुटेज सुरक्षित है या नहीं
रात में लकड़ी आने-जाने का रिकॉर्ड
8-परिवहन जांच
ट्रैक्टर/ट्रॉली/ट्रक के नंबर
परिवहन पास
ड्राइवरों के बयान
9- वन स्टाफ की भूमिका
कितनी बार निरीक्षण हुआ
निरीक्षण रिपोर्ट कहां है
किन अधिकारियों ने साइन किए
10- तत्काल कार्रवाई
मशीन सील की जाए
लकड़ी जब्त की जाए
FIR दर्ज हो
विभागीय जांच शुरू हो ।
अगर अब भी कार्रवाई नहीं हुई तो…
अगर इस पूरे मामले में भी सिर्फ कागज़ी जांच और बहानेबाज़ी हुई, तो यह साफ हो जाएगा कि:
वन कानून सिर्फ कागज़ों में है
ज़मीन पर माफियाओं का राज है
और ईमानदार शिकायतों की कोई कीमत नहीं
अब जवाब चाहिए, बहाने नहीं
मिरहची की यह आरा मशीन अब एक साधारण मशीन नहीं रही। यह वन विभाग की नीयत, माफियाओं की ताकत और प्रशासन की इच्छाशक्ति की परीक्षा बन चुकी है।
अब सवाल साफ है :-
क्या जंगल बचेगा या माफिया जीतेगा?
क्या कानून चलेगा या लेन-देन?
जनता इंतज़ार कर रही है…




