कासगंज/मारुपुर – कासगंज जिले के पास स्थित मारुपुर गांव इन दिनों एक गंभीर पर्यावरणीय संकट से गुजर रहा है। गांव के बाहरी हिस्से में चल रही एक टायर निर्माण फैक्ट्री ने ऐसा प्रदूषण फैलाना शुरू कर दिया है कि स्थानीय लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। गांववासियों की मानें तो फैक्ट्री से निकलने वाला धुआं, रबर का कचरा, केमिकल व विषैली गैसें इतनी अधिक मात्रा में हवा में घुल चुकी हैं कि उनके घरों में रहना मुश्किल हो गया है। स्थिति इतनी भयावह है कि गांव में रहने वाले बंदरों का रंग तक काला पड़ चुका है, जिसे ग्रामीण बढ़ते प्रदूषण का प्रत्यक्ष प्रमाण बता रहे हैं।
धुएं की काली परत में लिपटा गांव: “सुबह सूरज भी साफ नहीं दिखता”
मरुपुर गांव की गलियों में सुबह-सुबह घरों की छतों पर नजर डालें तो काला धुआं, राख और रबर के बेहद महीन कणों की परत साफ दिखाई देती है। स्थानीय लोगों के अनुसार, पहले कभी ऐसा नहीं था, लेकिन जब से टायर फैक्ट्री का विस्तार हुआ है, गांव के ऊपर हमेशा हल्का-सा स्मॉग छाया रहता है।
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि रोज सुबह की हवा जो कभी ताजी हुआ करती थी, अब उसमें रबर जलने और केमिकल की बदबू घुली रहती है। खेतों पर काम करने वाले किसानों का कहना है कि धुएं की वजह से फसलें भी प्रभावित हो रही हैं। पौधों की पत्तियों पर काली परत जम जाती है, जिससे उनकी वृद्धि रुक जाती है।
एक किसान ने बताया,
“पहले पत्ते हरे नजर आते थे, अब काले झुलसे से दिखते हैं। धुआं खेतों तक पहुंचकर हमारी उपज भी खराब कर रहा है।”
बंदरों का काला पड़ना: प्रदूषण की भयावहता का जीवित प्रमाण
सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि गांव में रहने वाले बंदरों का रंग भी धीरे-धीरे काला पड़ने लगा है। ग्रामीणों का कहना है कि पहले ये बंदर सामान्य भूरे रंग के थे, लेकिन पिछले एक-दो वर्षों में कई बंदरों की त्वचा और फर का रंग काला हो गया है। उनके शरीर पर चिपकी काली परत को हाथ से रगड़ने पर भी निकालना मुश्किल होता है।
वन्यजीव विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसा तभी होता है जब वायु में कार्बन, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और रबर के अति सूक्ष्म कण अत्यधिक मात्रा में हों। यह कण जानवरों के शरीर और फेफड़ों में चिपक जाते हैं।
गांव के एक युवक ने पत्रकारों को बताया,
“सुबह जब बंदर चलकर जाते हैं तो उनके शरीर से काली धूल झड़ती है। यह देख कर डर लगता है कि हम क्या सांस ले रहे हैं।”
शिकायतें दर्ज होने के बावजूद कार्रवाई नहीं: ग्रामीणों में गुस्सा और निराशा
ग्रामीणों ने कई बार पंचायत, तहसील और जिला प्रशासन को शिकायतें दीं, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। उनका आरोप है कि फैक्ट्री मालिक प्रभावशाली लोगों के संपर्क में है, जिसकी वजह से किसी भी विभाग ने फैक्ट्री का निरीक्षण या प्रदूषण मापने का प्रयास नहीं किया।
कई ग्रामीणों ने यह भी दावा किया कि प्रदूषण विभाग के अधिकारी कुछ महीनों पहले निरीक्षण करने आए थे, लेकिन उन्हें फैक्ट्री के अंदर जाने ही नहीं दिया गया। उसके बाद से विभाग ने कोई रिपोर्ट जारी नहीं की और न ही कोई नोटिस सर्व किया।
एक ग्रामीण महिला ने कहा,
“हमारे बच्चे खांसते-खांसते रात भर सो नहीं पाते। डॉक्टर दवा दे देता है लेकिन बीमारी वापस आ जाती है। आखिर हम जाएं तो जाएं कहाँ?”
फैक्ट्री की चिमनियों से लगातार निकलता जहरीला धुआं
मरुपुर की यह टायर फैक्ट्री कथित तौर पर पुराने टायरों की प्रोसेसिंग, रबर पिघलाने, और टायर निर्माण—तीनों का काम करती है। इन प्रक्रियाओं से लगातार काला धुआं निकलता है, जो सीधी हवा के साथ पूरे गांव में फैल जाता है। फैक्ट्री में प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (Pollution Control Device) लगे हैं या नहीं, इस पर भी संदेह है।
जहां आधुनिक टायर फैक्ट्रियों में धुआं फिल्टर करने के लिए इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रीसिपिटेटर (ESP) या स्क्रबर लगाए जाते हैं, मरुपुर की फैक्ट्री में ऐसे किसी भी उपकरण के होने के प्रमाण नहीं मिले हैं।
एक स्थानीय दुकानदार ने बताया,
“फैक्ट्री रात को और सुबह-सुबह ज्यादा धुआं छोड़ती है। शायद उस समय अधिकारी नहीं आते इसलिए बेखौफ काम होता है।”
स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव: बच्चे और बुजुर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित
मरुपुर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में रोजाना कई मरीज सांस की तकलीफ, खांसी, एलर्जी, आंखों में जलन और त्वचा रोग जैसी समस्याओं के साथ पहुंचते हैं।
स्वास्थ्य कर्मियों के अनुसार,
दमा और अस्थमा के मरीज बढ़ रहे हैं
बच्चों में सांस की नलियों में संक्रमण तेजी से फैल रहा है
बुजुर्गों की आंखों में जलन और पानी आना आम हो गया है
महिलाओं को सिरदर्द और उल्टी की शिकायतें रहने लगी हैं
डॉक्टरों का कहना है कि इस प्रकार का प्रदूषण लंबे समय में फेफड़ों, हृदय और त्वचा से संबंधित गंभीर बीमारियों का कारण बन सकता है।
प्रदूषण का असर पेयजल और मिट्टी पर भी
गांव के कई नलकूपों और जल स्रोतों की पानी की रंगत बदलने लगी है। ग्रामीण दावा करते हैं कि फैक्ट्री का केमिकल व रबर मिश्रित कचरा पास के नाले में बहा दिया जाता है, जो आगे जाकर खेतों और जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है।
यदि यह सच है तो यह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और जल प्रदूषण निवारण अधिनियम, 1974 का स्पष्ट उल्लंघन है।
कई किसानों ने बताया,
“पानी में बदबू आने लगी है। पहले साफ पानी आता था, अब उसमें काली गंदगी नजर आती है।”
गांव का सामाजिक ढांचा भी प्रभावित: लोग पलायन की सोचने लगे
मरुपुर के कई परिवार अब गांव छोड़ने की सोच रहे हैं। उनका कहना है कि बच्चों और बुजुर्गों की जिंदगी खतरे में डालकर यहां रहना उचित नहीं है। लोग नौकरी या खेती छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में बसना चाहते हैं।
गांव के मुखिया ने कहा,
“अगर प्रशासन नहीं जागा तो अगली पीढ़ी बीमारियों से घिर जाएगी। लोग मजबूरी में पलायन करेंगे। गांव जो कभी हरा-भरा था आज प्रदूषण से घुट रहा है।”
प्रशासन की चुप्पी पर सवाल: कब होगी कार्रवाई , कई सामाजिक संगठनों ने मांग की है कि:-
1. फैक्ट्री का तुरंत प्रदूषण स्तर मापा जाए
2. फैक्ट्री के लाइसेंस, NOC और पर्यावरण मंजूरी की जांच हो
3. प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाए जाएं
4. धुएं और केमिकल कचरे को नियंत्रित किया जाए
5. और जब तक स्थिति सामान्य न हो जाए, फैक्ट्री को अस्थायी रूप से बंद किया जाए
ग्रामीणों का स्पष्ट कहना है कि यदि प्रशासन कार्रवाई नहीं करता, तो वे सड़क पर उतरकर बड़ा आंदोलन करेंगे।
निष्कर्ष: मरुपुर को तात्कालिक राहत की जरूरत, नहीं तो खतरा और बढ़ेगा ।
मरुपुर गांव की स्थिति दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है। प्रदूषण इतना बढ़ चुका है कि इससे मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी और फसलें भी प्रभावित हो रही हैं। बंदरों का काला पड़ना इस संकट की भयावहता का खुला संकेत है।
ग्रामीणों की मांग है कि फैक्ट्री तुरंत बंद की जाए या आधुनिक प्रदूषण नियंत्रण प्रणाली लागू की जाए। सवाल यह है कि प्रशासन कब जागेगा? क्या किसी बड़े हादसे या बीमारी का इंतजार है?
मरुपुर गांव आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां निर्णय की देरी पूरे गांव के भविष्य को अंधकार में धकेल सकती है।
फैक्ट्री से होने वाले नुकसान व इलाकाई लोगों की मांग।।
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