कासगंज: जिले में एक बार फिर हरे-भरे पेड़ों की नियति पर कुल्हाड़ी चलनी शुरू हो गई है। सहावर, अमापुर और ढोलना क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पेड़ों का कटान वन विभाग की "मौन स्वीकृति" से होता दिखाई दे रहा है। जहां कभी हरियाली की सांसें बहा करती थीं, अब वहां कटे हुए तनों और सूनी ज़मीन का मंजर यह बताने के लिए काफी है कि कासगंज में फिर से पर्यावरण विनाश की कहानी दोहराई जा रही है।
कटान शुरू, हरियाली खत्म!
स्थानीय लोगों के मुताबिक, बीते कुछ दिनों से ठेकेदारों की टीमें भारी मशीनों के साथ गांवों में सक्रिय हैं। सहावर के पास कई स्थानों पर, खासतौर से ग्रामीण इलाकों के खेतों के किनारे और सरकारी ज़मीनों पर लगे पुराने हरे पेड़ों को रातों-रात काटा जा रहा है।
अमापुर और ढोलना में भी यही हाल है—जहां दिन में विभाग के अफसर जांच का दिखावा करते हैं और रात में ट्रकों पर लदे पेड़ों की लकड़ी धड़ल्ले से निकलती है।
लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर ये “कटान परमिशन” किस आधार पर दी जा रही है, जबकि पेड़ पूरी तरह स्वस्थ और फलदार हैं। यह आरोप लग रहा है कि ठेकेदारों ने विभाग के कुछ भ्रष्ट कर्मचारियों से मिलीभगत कर स्वस्थ पेड़ों को बीमार घोषित करवा दिया है, ताकि कटान की मंजूरी मिल सके।
वन विभाग की चुप्पी – क्या मिली हुई है शह?
कासगंज वन विभाग की कार्यप्रणाली अब सवालों के घेरे में है। सूत्रों का कहना है कि हाल ही में विभाग ने कई “पेड़ों के सर्वे” किए थे, जिनमें बड़ी संख्या में पेड़ों को “बीमार” और “गिरने योग्य” बताया गया। लेकिन स्थानीय लोगों का दावा है कि इन पेड़ों में से ज्यादातर पूरी तरह स्वस्थ थे — न सूखे थे, न ही किसी खतरे में।
एक ग्रामीण ने नाम न बताने की शर्त पर बताया —
“बन विभाग खुद ठेकेदारों से मिला हुआ है। जिन पेड़ों को काटने की अनुमति दी गई, वे न सिर्फ स्वस्थ थे बल्कि छाया और पर्यावरण का आधार थे। रात में ट्रक आते हैं, पेड़ काटे जाते हैं और अगली सुबह सबकुछ साफ कर दिया जाता है।”
‘लकड़ी माफिया’ की मौज और करोड़ों का खेल'
जानकारी के मुताबिक, एक पेड़ की लकड़ी का औसत बाजार मूल्य 1000 से 2500 रुपये तक है। जब ऐसे सैकड़ों पेड़ एक ही इलाके में काटे जा रहे हैं, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कारोबार करोड़ों रुपये का है।
स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह “लकड़ी माफिया” वर्षों से जिले में सक्रिय है और हर बार सरकारी विभागों की ढिलाई या “सहमति” से यह धंधा फिर जीवित हो जाता है।
अमापुर के पर्यावरण प्रहरी अरविंद सिंह कहते हैं —
“हरियाली खत्म हो रही है, तापमान बढ़ रहा है, पानी नीचे जा रहा है। लेकिन ठेकेदारों और विभाग की जेबें ऊपर जा रही हैं। यह केवल पेड़ काटने का मामला नहीं, यह हमारे भविष्य को काटने का मामला है।”
पर्यावरणीय संतुलन पर बड़ा खतरा
कासगंज का इलाका पहले से ही हरियाली की कमी से जूझ रहा है। बरसात के मौसम में जलभराव और गर्मियों में सूखा – दोनों की मार झेलता यह जिला अब पेड़ों के कटान से और कमजोर होता जा रहा है।
पर्यावरण विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि अगर यही हाल रहा तो आने वाले 5 से 10 सालों में इस क्षेत्र का भूजल स्तर और नीचे चला जाएगा।
ढोलना क्षेत्र में कई ग्रामीण बताते हैं कि जहां पहले पेड़ों की छाया रहती थी, अब धूप इतनी तेज़ हो गई है कि दोपहर में खेतों में खड़ा होना मुश्किल हो गया है। पेड़ों की जड़ों ने जो नमी बनाए रखी थी, वह भी अब खत्म हो रही है।
कानून क्या कहता है?
वन संरक्षण अधिनियम 1980 और उत्तर प्रदेश वृक्ष संरक्षण नियमावली के तहत बिना उचित सर्वे, रिपोर्ट और अनुमति के किसी भी हरे पेड़ का कटान पूरी तरह गैरकानूनी है।
लेकिन जब अनुमति ही “गलत रिपोर्ट” पर आधारित हो, तो कानून केवल कागजों पर रह जाता है।
कासगंज जिले में पिछले साल भी इसी तरह का मामला सामने आया था जब कई सागौन और शीशम के पेड़ काटे गए थे। जांच के आदेश तो हुए, लेकिन न ठेकेदारों पर कार्रवाई हुई, न अधिकारियों पर कोई असर।
लोगों की मांग – हो सीबीआई या एसआईटी जांच-
इस बार जनता अब चुप नहीं है। सहावर और अमापुर के ग्रामीणों ने मांग की है कि पूरे पेड़ कटान प्रकरण की उच्चस्तरीय जांच हो। लोगों का कहना है कि विभाग खुद आरोपी है, तो जांच निष्पक्ष तभी हो सकती है जब यह किसी स्वतंत्र एजेंसी जैसे एसआईटी या सीबीआई के हवाले की जाए।
अमापुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा —
हमारे गांव में हर पेड़ को पहचानते हैं। जो पेड़ आज काटा गया, वो पिछले साल तक फलों से लदा था। अब हमें बताया जा रहा है कि वह ‘बीमार’ था। यह कैसा मजाक है?”
निष्कर्ष – जंगल नहीं, जमीर कट रहा है
कासगंज में पेड़ सिर्फ लकड़ी नहीं हैं — वे गांवों की पहचान हैं, खेतों की रक्षा हैं, हवा की सांस हैं। लेकिन ठेकेदारों के लालच और विभागीय भ्रष्टाचार ने इनकी जड़ों पर वार कर दिया है। अगर यही हाल चलता रहा, तो आने वाले समय में कासगंज न केवल हरियाली खो देगा, बल्कि अपनी जलवायु, अपनी मिट्टी और अपनी पहचान भी गंवा देगा।
अब देखना यह है कि प्रशासन कब जागता है — जब आखिरी पेड़ कट जाएगा, या जब जनता का गुस्सा फूटेगा।






